Saturday, December 14, 2013

वारिस

तेज बारिश के साथ उस रात तूफ़ान भी जोरों पे था| एक तो बारिश से पूरा बदन भीग चूका था ऊपर से हवा के कारण कुद्कुड़ी बंधे जा रही थी|“मुझे भी आज ही छतरी घर भूल के आनी थी|”, वो बडबडा हुआ जा रहा था| अपने दिल को ही बहला रहा था वो| छतरी जार जार हो घर के किसी कोने में पड़ी थी| “अगली तनख्वाह से पहले एक रेनकोट खरीदूंगा|” मुंबई की बारिश से बचना आसान नहीं होता| उसने कुछ सोचा और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगा| कल से सब ठीक हो जाएगा, कल से|
वो रात को फैक्ट्री से ओवर-टाइम करके लौट रहा था| चार बच्चों की परवरिश आसान नहीं होती| बीवी फिर पेट से थी| इस बार लड़का हो जाए, तो गंगा नहाऊँगा| पिछले ५ साल यही सोच रहा था वो| इस बार लड़का नहीं हुआ तो दूसरी शादी पक्की| माँ नें बुथिया की लड़की देख रखी थी| लंगड़ी है वो, पर वारिस तो दे ही देगी| न तो पहली बीवी दहेज़ लायी थी, न वारिस ही दे पायी है। उफ़ ये बारिश भी रुकने का नाम ही नहीं लेती।
सोचते सोचते कब सड़क पर से ध्यान हटा पता ही चला। बस एक रौशनी सी दिखी और उसके बाद अंधकार छा गया। जब आँखें खुली तो कुछ अजीब सा लगा। कौन सी जगह थी यह? सर भी भारी सा था। “होश आ गया, होश आ गया“, कुछ चहल कदमी सी होने लगी। पास में बैठी औरत रोने लगी। मैं २ साल से कोमा में था।
सबने उम्मीद छोड़ दी थी। नहीं छोड़ी थी तो बस इस पागल औरत और मेरी ४ नन्ही परियों ने। वही जिसको मैं छोड़ने कि सोच रहा था, २ साल पहले उस काली रात में। वही जिनके पैदा होने कि मुझे कभी ख़ुशी न हुई थी। २ साल से मेरी सेवा कर रही हैं। आज मैं जीवित हूँ सिर्फ इनकी वजह से।
यही मेरी धरोहर हैं, यही मेरी वारिस हैं।

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