Tuesday, September 23, 2014

गोलू मेरे पास है

मुझे पढ़ते वक़्त कलम से कुछ भी लिखने/बनाने की आदत है। कोई चित्र, कोई शब्द, कुछ भी। यह मेरे ख्यालों से अपने आप निकलते हैं। “मैं गोलू के पास हूँ, गोलू मेरे पास है”, एक दिन पढ़ते वक़्त मैं यह लिख बैठा किताब पे। कुछ देर के पश्चात, मेरा एक मित्र मुझसे मिलने आया और उसकी नज़र इस लाइन पे पड़ गयी। वह हंस-२ के लोटपोट हो गया।
इस किस्से को करीब १० साल हो गए, पर मेरा मित्र इसे भूल नहीं पाया। न ही उसने मुझे भूलने दिया। जबतब वह मेरी टांग खींचता रहता है, इस बात पर।
मित्रों ऐसे कितने ही किस्से हो जाते हैं जीवन में। कुछ हम संजोह पाते हैं, कुछ धुंधले हो जाते हैं। दोस्त भी ऐसे ही एक किस्से की तरह होते हैं। कुछ से हम संपर्क में रहते हैं, कुछ अतीत का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। कितना अच्छा हो अगर हम ऐसी हर याद को अपने पास रख पाएं, जब तब अनुभव कर पाएं उस एहसास का।
एक अंग्रेजी चित्रपट में दिखाया गया था की कैसे हम अपने मष्तिष्क में अपनी हर याद को संझोह के रख सकते हैं। हम एक ऐसी दुनिया बसा सकते हैं जिसमें हमें अपने सारे मित्र, परिवार, एक साथ रहने का आभास दें। बस आँखें बंद करें और डूब जाएँ अपनी यादों के समुन्दर में।
गोलू भी वही दर्शाता है। मैं गोलू के करीब उतना ही हूँ, जितना गोलू मेरे करीब रहना चाहता है। यह एक दुराही मार्ग है। कोई याद अगर कड़वी है, तो उसे हम कहीं गहराई में दफना देते हैं। गोलू और मैं दूरी बना लेते हैं।
जिन लोगों से हम संपर्क में रहते हैं, वह लोग हमसे संपर्क में रहना चाहते हैं। वह हमारे लिए गोलू होते हैं, हम उनके लिए गोलू होते हैं। अत: मैं गोलू के पास हूँ, गोलू मेरे पास है।

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