Sunday, September 22, 2013

परदेसी

हवा का झोंका मध्यम-२,
अपने संग ले कुछ उड़ा,
एक गुलाबी पंखुड़ी सा,
फूल नहीं वो ख़त था तेरा।
खिड़की थी खुली हुई ऐसे,
बंद भी न मैं कर पाया,
फुर्ती से तो लपका मैं,
पर कम्बख्त उड़ता ही गया।
पढने को खोला भी न था,
देख-२ ही आहें भर पाया,
थोड़ी देर तो पीछे दौड़ा मैं,
पड़ा खुला मैदान भारी पर।
इतने दिन की आँख मिचोली,
एक चुरायी हुई हसीं,
दिया अचानक मुझको ख़त,
तूने जाने के आखरी दिन।
ख़त के साथ पता भी गया,
ढूंढूंगा तुझको कैसे अब,
किसी पराये शहर मैं,
यही सोच-२ के बैठा हूँ।
पर शायद अच्छा ही हुआ,
परदेसी से प्यार नहीं टिकता,
इस बात से ही खुश हो लूँगा,
आखिर तूने ख़त तो लिखा॥

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