Friday, September 20, 2013

औ मैं सो जाऊं

निकला था मंजिल की ओर,
अच्छा हो रास्ता खो जाऊं,
एक चाह अधूरी हो पूरी,
हो अँधेरा औ मैं सो जाऊं॥
हैं थकी थकी आँखें मेरी,
औ फटी फटी सी बातें हैं,
पूछ-२ पता मैं त्रस्त हुआ,
न ही मिले, अब यही दुआ॥
जब खाने को हो फ़क्त हवा,
औ पीने को आंसूं न कम हौं,
थर-२ कर काँपे देह मेरी,
चाहे भट्टी सी गरमाई हो॥
नाम ख़ाक, काहे की साख,
झुका के सर, औ कटा नाक,
केशों में रेंगती जूं भी अब,
मेरा लहू पीने से बचती है॥
देखा था सपना जो कभी,
बस धुंधला सा याद आता है,
ताश के पत्तों से बने महल,
क्या हवा का झोंका सह पाए?
जन्नत हैं जाना सब चाहते,
ऐसा हो जहन्नुम मैं जाऊं,
एक चाह अधूरी हो पूरी,
हो अँधेरा औ मैं सो जाऊं॥

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