Sunday, February 19, 2012

जीवन जीना क्या है

कुछ दिन से सोच रहा था कि लिख डालूँ,
आते आते हाथ पे बात रुक जाती थी पर,
कुछ खट्टे मीठे अनुभव हुए हाल में,
उनसे मैंने जाना, जीवन जीना क्या है|
गर उस रोज़ सड़क से मैं गुजरा न होता,
मौत को अपनी बाहों में सिमटा न होता,
खून का रंग लाल कभी जान न पाता,
मृत्यु क्या होती अकाल पहचान न पाता|
उस दिन गर मैं भूखा सोया न होता,
करवट बदल बदल तडपा रोया न होता,
बेकारी क्या होती है, चुभ न पाती,
पी कर पानी भी डकार कभी न आती|
उस दिन उस कुकुर ने नोचा न होता,
मैंने अगर उसे गुस्से से दुत्कारा  न होता,
पता न चल पाता कि अपना होता क्या है,
दुलार दुत्कार में अंतर न कभी मैं पाता|
उस दिन उस पीड़ित को गर छोड़ा न होता,
कराह कि आह को कभी महसूस न पाता,
धूप छाँव पैसे से जो सब एक हुई थी, बदली,
पैरों के छाले क्या होते मैंने आखिर जाना|
सन्नाटे की आहट से मैं गुजरा न होता,
उस सर्द भरी रात में गर ठिठुरा न होता,
नंग, ठण्ड की तपन से मैं वाकिफ न होता,
पल पल लुटने के डर से सहमा न होता|
पर जो कुछ भी हो, आग से गुजर के देखा,
बिन खडाऊं के काटों पर चलकर देखा,
गहरे पानी में सांसों की तड़प को देखा ,
औ चक्की के दो पाटों में पिसकर देखा|
कुछ दिन से सोच रहा था कि लिख डालूँ,
आते आते हाथ पे बात रुक जाती थी पर,
कुछ खट्टे मीठे अनुभव हुए हाल में,
उनसे मैंने जाना, जीवन जीना क्या है||

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