Monday, July 5, 2010

अनजान हँसी

पिछली सर्दी की बात है ये
घर पर था छुट्टी मना रहा
धुंध की चादर ओड़े था
सूरज भी ठुर ठुर ठिठुर रहा |

सुबह सुबह सी दोपहर थी जो
तफरी करने को निकला मैं
सायें सायें कर हवा कटी
सुड सुड करती सी नाक बही |

साथ मैं मेरे जॉय थी था
गुस्से से मुझको घूर रहा
खुद को तो चले मारने तुम
मेरे को काहे खत्म करो |

तभी दिखी कुछ दूर तलक
एक जानी पहचानी अनजान झलक
वो खिल खिल करती एक मस्त हँसी
जॉय की भी पूँछ हिली |

छम छम करती वो हुस्न परी
गरमाती मौसम तरी तरी
जी भरकर देख ना पाया मैं
कुछ और धुंध सी बही तभी |

वो चेहरा ढूँढ रहा तबसे
एक झलक मांग रहा रबसे
पर मिल ना पाया मुझे कभी
भूलने की कोशिश करुँ अभी |

वो थी एक अनजान हसीं
मेरी धड़कन उसमें है फसीं
पिछली सर्दी की जो है बात
इस सर्दी मैं काश हो मुलाक़ात |

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