Friday, March 28, 2008

बकरी

एक मैला कुचैला छोटा बच्चा। उसके लिए जिंदगी का मतलब सिर्फ भूख और दुःख था। पटरी के किनारे बनी झोपडी ही उसका घर थी। लंगड़ी माँ ट्रैन मैं भीख मांगती थी। बड़ा भाई ट्रैन में झाड़ू लगाकर पैसे जुटाता था। कभी-२ दो वक़्त का खाना भी नसीब नहीं हो पाता था। इस सब दुःख दर्द में उसकी साथी थी, उसकी प्यारी बकरी। वह दिन भर उसके साथ खेला करता था। दोनों एक दूसरे को समझते थे। एक दिन खेलते-२ बकरी का पाँव पटरी पर फसी डोरी में अटक गया। उसी वक़्त सामने से ट्रैन आने लगी। बकरी चीख रही थी। बच्चे ने बकरी को देखा। वह डरा नहीं, दौड़ पड़ा। उसके मन में बस एक ही सवाल था कि आज वह यह नहीं होने देगा। वह पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था। लम्बी छलांग लगाकर उसने बकरी को पकड़ा और दूर झटक दिया। खुद दूसरी ओर कूद गया। कुछ ना होते हुए भी आज उसके चेहरे पर बड़ी चमक थी। आज वह विजेता था। उसने अनहोनी को टाल दिया था। वह यह दोबारा होने भी कैसे दे सकता था। उसे याद था कि कभी इस बकरी की जगह उसने अपने पिता को कटते देखा था।

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