पिछली सर्दी की बात है ये
घर पर था छुट्टी मना रहा
धुंध की चादर ओड़े था
सूरज भी ठुर ठुर ठिठुर रहा |
सुबह सुबह सी दोपहर थी जो
तफरी करने को निकला मैं
सायें सायें कर हवा कटी
सुड सुड करती सी नाक बही |
साथ मैं मेरे जॉय थी था
गुस्से से मुझको घूर रहा
खुद को तो चले मारने तुम
मेरे को काहे खत्म करो |
तभी दिखी कुछ दूर तलक
एक जानी पहचानी अनजान झलक
वो खिल खिल करती एक मस्त हँसी
जॉय की भी पूँछ हिली |
छम छम करती वो हुस्न परी
गरमाती मौसम तरी तरी
जी भरकर देख ना पाया मैं
कुछ और धुंध सी बही तभी |
वो चेहरा ढूँढ रहा तबसे
एक झलक मांग रहा रबसे
पर मिल ना पाया मुझे कभी
भूलने की कोशिश करुँ अभी |
वो थी एक अनजान हसीं
मेरी धड़कन उसमें है फसीं
पिछली सर्दी की जो है बात
इस सर्दी मैं काश हो मुलाक़ात |
No comments:
Post a Comment